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बस्तर-संस्कृति / पूजानन्द नेमा

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मुझे मालूम है यह
कि तुम अपने घर में रुखा-सूखा
या कुछ भी खा लेते हो
यह किसी को पता नहीं चलता
और तुम्हें शर्मसारी की परवाह नहीं होती
किंतु कपड़े पहनने में
तुम बहुत सावधानी बरतते हो
अपनी रुचि और सड़कज़ादों के नैनों की पसंद के
तुम सदा कायल हो
पारखी हो इसीलिए सड़कों
समुद्र-किनारों, शहरों और उत्सवों-जलसों में
वस्त्रों की रंगीनी से
बीवी-बच्चों की फटेहाली
और घर की फाकेमस्ती
सब छुपी रहती है ।

यह एक सामाजिक सत्य है
कि आज यह खाने-पीने वालों का नहीं
पहनने-ओढ़ने वालों का देश है
इतिहास से
यह एक प्रतिशोध है
प्रतिशोध की संस्कृति भी है ।

एक समय जीते रहने की हड्डी तोड़ दौड़-धूप में
जब देह पर बस्तर न होता था
वह आवरण-रहित अंगों का खुलापन
आज का नदारद पहनावा न था
क्लबों का अंग-प्रदर्शन न था
अभाव और गरीबी की आदत थी
तुम इतिहास से बदला ले रहे हो
अथवा और गरीबी की आदत थी
तुम इतिहास से बदला ले रहे हो
अथवा तुम दुकान की शो-पीस हो
सब कुछ जानते हुए भी
मैं नावाकिफ़ रहना चाहता हूँ
और मानने लगा हूँ
हमारी आप की बस्तर-संस्कृति ।