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बहुत दिनों बाद / उद्भ्रान्त
Kavita Kosh से
बहुत दिनों बाद
एक गीत लिखा है
लेकिन यह गीत नहीं
पिछले गीतों जैसा
इसमें रोमांटिकता नहीं है
सच ! इसमें भावुकता नहीं है
यह यथार्थ की
टेढ़ी गलियों में घूमा है
इसने-खुरदुरा-
वक़्त का चेहरा चूमा है
यह पानीदार ख़्वाब नहीं है
फिर भी इसका जवाब नहीं है
बहुत दिनों बाद
एक स्वप्न दिखा है
लेकिन यह स्वप्न नहीं
पिछले स्वप्नों जैसा
इसमें लिजलिजी गंध नहीं है
वही घिसा-पिटा छंद नहीं है
इसमें संस्पर्श
गद्य का भी मिल जायेगा
शब्द-शब्द
अनगढ़ साँचे में ढल जायेगा
यह पिघली हुई पीर नहीं है
इसकी कोख में नीर नहीं है
बहुत दिनों बाद
एक जख़्म पका है
लेकिन यह जख़्म नहीं
पिछले जख़्मों जैसा
लेकिन यह गीत नहीं
पिछले गीतों जैसा
--’वैचारिकी संकलन’ (नई दिल्ली), मई, 1996