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बिटियाएँ / कविता वाचक्नवी

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बिटियाएँ

पिता!
अभी जीना चाहती थीं हम
यह क्या किया.......
हमारी अर्थियाँ उठवा दीं!
अपनी विरक्ति के निभाव की
सारी पगबाधाएँ
हटवा दीं.....!!

अब कैसे तो आएँ
तुम्हारे पास?
अर्थियों उठे लोग
[दीख पडे़ तो]
प्रेत कहलाते हैं
‘भूत’ हो जाते हैं
बहुत सताते हैं।

हम है - भूत
-अतीत
समय के
वर्तमान में वर्जित.....
विडंबनाएँ.......
बिटियाएँ........।