भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बिन्दास बादल / सरोजिनी कुलश्रेष्ठ
Kavita Kosh से
अपनी गगरी, अपना पानी
लेकर झट आ जाते बादल
कहाँ बरसना है बिन देखे
पानी बरसा जाते बादल
मेल नहीं आपस में कोई
कोई कभी सवाल न करते
जब मन में आया तब बरसे
मनमानी ही करते बादल
सब कहते हा! बादल फट गये
पर हम पर ही हंसते बादल
मानव ने ही गड़बड़ की है
दोष हमीं को देते बादल
पेड़ काट डाले धरती के
कौन बुलायेगा अब बादल
बरसेंगे फिर कैसे बादल।