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बिरसो / विश्वासी एक्का

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कितनी ख़ुश थी आजी
जब मैनें पूछा था
कान के छिद्रों में अपनी कानी उँगली घुसाते हुए —
आजी ! आप पाँच-पाँच बालियाँ पहनती थीं कानों में ?

हँसते हुए कहा था आजी ने —
अरे, नहीं रे नतिया
मैं तो खोंसती थी छिद्रों में
काले-सफ़ेद साही के काँटे
वही तो थे मेरा गहना, मेरे हथियार ।
 
एक दिन आजो को गुस्सा आ गया था
किसी बात पर
मारने दौड़े थे आजी को

यकायक ठिठक गए थे
आजो के क़दम
आजी के हाथों में
साही के काँटों को देखकर ।

ललकारा था आजी ने
हथियार बन गए थे साही के काँटे ।
विजयी मुस्कान तैर गई थी होंठो पर,
दमक उठा था चेहरा,
बिरसो नाम था आजी का ।

सुनती हूँ गोष्ठियों में
नारी सशक्त हो रही है,
याद आ जाती है आजी,
साही के काले-सफ़ेद काँटे
और ठगे-ठगे से आजो ।