भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बिस्तर / प्रयाग शुक्ल
Kavita Kosh से
रात आती है--
बिछ जाता है बिस्तर ।
बिस्तर रहता है
और उसका भरोसा ।
लौटूँगा लेटूँगा
फैलाकर पाँव--
पारकर
फिर एक दिन !
घट जाती है एक दिन में
कितनी ही चीज़ें !
यह जो मैं पड़ा हूँ
बिस्तर पर--
न जाने कितने दोनों का
पुलिंदा !
क्या साबुत ?
उठकर बैठ जाता हूँ--
फिर देर तक
नहीं आती नींद !