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बुड्ढा दरिया-३ /गुलज़ार

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मुँह ही मुँह कुछ बुड्बुड् करता, बहता है
                     ये बुड्ढा दरिया!

पेट का पानी धीरे धीरे सूख रहा है,
दुबला दुबला रहता है अब!
कूद के गिरता था ये जिस पत्थर से पहले,
वह पत्थर अब धीरे से लटका के इस को
अगले पत्थर से कहता है,--
इस बुड्ढे को हाथ पकड़ के, पार करा दे!!

मुँह ही मुँह कुछ बुड्बुड् करता, बहता रहता
                        है ये दरिया!
छोटी छोटी ख्वाहिशें हैं कुछ उसके दिल में--
रेत पे रेंगते रेंगते सारी उम्र कटी है,
पुल पर चढ के बहने की ख्वाहिश है दिल में!

जाडो में जब कोहरा उसके पूरे मुँह पर आ जाता है,
और हवा लहरा के उसका चेहरा पोंछ के जाती है--
ख्वाहिश है कि एक दफा तो
वह भी उसके साथ उड़े और
जंगल से गायब हो जाये!!
कभी कभी यूँ भी होता है,
पुल से रेल गुजरती है तो बहता दरिया,
पल के पल बस रुक जाता है--