भेद / साधना जोशी
कैसा चलन है समाज का,
स्त्री का पति जब गुजर जाता है ।
उसे अषुभ माना जाता है,
समाज में अपषगुन मानते हैं,
ससुराल में उसे अभाग्नि मानते हैं ।
उसके श्रृँगार को नोचा जाता है,
उसको जीते जी मार दिया जाता है,
उसकी उमंगों को कुचलकर,
उसे मृत बना दिया जाता है ।
जहाँ पुरुश की स्त्री की मृत्यु हो जाती है,
वहाँ पुरुश को दूसरी षादी के लिए,
प्रेरित किया जाता है ।
उसकी उम्मीदों को संजोया जाता है।
उसे सहारा देने के लिए घर के ही,
अनेकोे हाथ खड़े हो जाते है ।
अन्तर देखों षाक्ति का,
औरते अकेले ही क्षमता रखती हैं,
स्त्री और पुरुश की भूमिका निभाने की ।
किन्तु पुरुश को सहारा,
लेना होता है स्त्री का ।
घर चलाने के लिए,
जीवन बिताने के लिए ।
अब अबला हम किस को कहें,
स्त्री या पुरुश को ।