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मकरन्द-विन्दु / जयशंकर प्रसाद

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तप्त हृदय को जिस उशीर-गृह का मलयानिल
शीतल करता शीघ्र, दान कर शान्ति को अखिल
जिसका हृदय पुजारी है रखता न लोभ को
स्वयं प्रकाशानुभव-मुर्ति देती न क्षोभ जो
प्रकृति सुप्रांगण में सदा, मधुक्रीड़ा-कूटस्थ को
नमस्कार मेरा सदा, पूरे विश्व-गृहस्थ को

हैं पलक परदे खिचें वरूणी मधुर आधार से
अश्रुमुक्ता की लगी झालर खुले दृग-द्वार से
चित्त-मन्दिर में अमल आलोक कैसा हो रंहा
पुतलियाँ प्रहरी बनीं जो सौम्य हैं आकार से
मुद मृदंग मनोज्ञ स्वर से बज रहा है ताल में
कल्पना-वीणा बजी हर-एक अपने ताल से
इन्द्रियाँ दासी-सदृश अपनी जगह पर स्तब्ध है
मिल रहा गृहपति-सदृश यह प्राण प्राणधार से

हृदय नहिं मेंरा शून्य रहे
तुम नहीं आओ जो इसमें तो, तब प्रतिबिम्ब रहे
मिलने का आनन्द मिले नहिं जो इस मन को मेरे
करूण-व्यथा ही लेकर तेरी जिये प्रेम के डेरे

मिले प्रिय, इन चरणों की धूल
जिसमें लिपटा ही आया है सकल सुमंगल-मूल
बड़े भाग्य से बहुत दिनो पर आये हो तुम प्यारे
बैठो, घबराओ मन, बोलो, रहो नहीं मन मारे
हृदय सुनाना तुम्हें चाहता, गाथाएँ जो बीतीं
गदगद कंठ, न कह सकता हूँ, देखी बाजी जीती

प्रथम, परम आदर्श विश्व का जो कि पुरातन
अनुकरणों का मुख्य सत्य जो वस्तु सनातन
उत्तमता का पूर्ण रूप आनन्द भरा धन
शक्ति-सुधा से सिचा, शांति से सदा हरा वन
परा प्रकृति से परे नहीं जो हिलामिला है
सन्मानस के बीच कमल-सा नित्य खिला है
चेतन की चित्कला विश्व में जिसकी सत्ता
जिसकी ओतप्रोंत व्योम में पूर्ण महत्ता
स्वानुभूति का साक्षी है जो जड़ क चेतन
विश्व-शरीरी परमात्मा-प्रभुता का केतन
अणु-अणु में जो स्वभाव-वश गति-विधि-निर्धारक
नित्य-नवल-सम्बन्ध-सूत्र का अद्भूत कारक
जो विज्ञानाकार है, ज्ञानों का आधार हैं
नमस्कार सदनन्त को ऐसे बारम्बार है

गज समान है ग्रस्त, त्रस्त द्रोपती सदृश है
ध्रुव-सा धिक्कृत और सुदामा-सा वह कृश है
बँधा हुआ प्रहलाद सदृश कुत्सिम कर्माें से
अपमानित गौतमी न थी इतनी मर्मों से
धर्म बिलखता सोचता
हम क्या से क्या हो गये
थक कर, कुछ अवतार ले
तुम सुख-निधि में सो गये