भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मछलियाँ / पूनम भार्गव 'ज़ाकिर'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मछलियाँ
उसके जिस्म में जड़ी थी
जैसे उसने लिया हो प्रण
ज़िन्दा रहेगा उन्हीं के साथ
वैसे ही जैसे ...
मछलियाँ रहतीं
पानी के साथ!

और वो भी ...
मछली पसन्द करती
उसकी दुर्गन्ध से चिढ़ती
जिसको वह
सुगन्ध कहता!

अजीब रिश्ता था
दोनों का
लड़ते-मरते पर
एक न होते
तालमेल की ठान
एक दिन
वो डूब गई
और
मछली हो गई!

वह भी
उस दिन से ही
समुन्दर से दूर
रेगिस्तान का वासी हो गया!
उसे अब भी
मरीचिका में
मछली नज़र आती है
पर
सुगन्ध नहीं आती
नकली पानी असली मछुआरा
कभी-कभी
छलांग लगाती मछली
के पेट में
दुष्यंत वाली अँगूठी की झलक
देख लेता है
जिसको तलाश रहा था वह
सदियों से
लुप्तप्राय नदियों में
शकुंतला कि आत्मा लिए......

कभी तो
उनका विस्मृत प्रेम
इस धरा पर
साफ़ पानी की धारा में बहता हुआ
समुन्दर तक पहुँचेगा

कि अब।
शुद्धता का
चरम प्रवाह
विशुद्धता से
एकाकार होना
सुनिश्चित करना चाहता है!