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मद्रास / दूधनाथ सिंह
Kavita Kosh से
स्वागत-होटल में लोग अपनी ख़ुशी फुसफुसा रहे हैं ।
मेरिना समुद्र-तट पर सुबह
मछुआरों के नंगे बच्चे नहा रहे हैं
जिस बैरक में 'क्लाइव' रहता था--उसके पास
प्याज़ की दस-दस गाँठों का ढेर लगाए--औरतें
ख़रीदार के इन्तज़ार में झुटैंले बालों से जुएँ निकाल रही हैं
दो हज़ार वर्ष पुरानी एक कवयित्री
हाथ उठाए मछुआरों की झोंपड़ी की तरफ़ इशारा कर रही है
प्रेम काली पसलियों में दमे की तरह हाँफ रहा है
एक सुखण्डी चेहरा--इतिहास की गाँठ
- खोलता हुआ बालू
- में गड़ा है ।
सूरज आख़िरकार--पूरब में ही
- उगता है ।