भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मन वीणा / इंदिरा शर्मा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मेरी मन वीणा के टूटे थे तार
उन्हें लिया सँवार
मधुर स्वर हवा में लहराया
कहाँ हो तुम , हे सृष्टि के नूर
कहाँ तुम्हारी छाया ?
नदिया के पार , या फिर नील गगन विस्तार |
सूरज प्राण प्राची में मुस्कुराया
नीड़ों में कलरव –
करतल ध्वनि का स्वर बन
शिशु विहगों ने गाया |
आहत था जो मानव
निरखता प्रकृति छवि , अवछिन्न
हुआ शांत मन , तन सिहराया |
मैंने कर में साधी वीणा
फिर हौले से , जो टूटे थे तार , उन्हें लिया सँवार
पलक बंद कर मंद मधुर स्वर में , हृदय गीत गाया |
मन सरिता पर मानो रजत चाँद उतर आया
मन वीणा पर मैंने गाया ,
मैंने गाया , मैंने गाया , मैंने गाया |