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महुए / ”काज़िम” जरवली
Kavita Kosh से
कभी हमने भी गेहूं की बाली मे महुए पिरोये थे !!!
मेरे गाँव की यादें नशीली !
जूही,
चमेली !
वो खट्टे, वो मीठे मेरे दिन,
वो अमिया, वो बेरी !
कभी गाँव के कोल्हु पर ताज़े गुड के लिये रोये थे !!
कभी हमने भी........................... महुए पिरोये थे !!!
कभी भैंस की पीठ पर,
दूर तालाब पर !
धान के हरे खेतो के बीच खोये थे !!
कभी हमने भी.............महुए पिरोये थे !!!
कच्ची दहरी के पीछे,
खाई के नीचे !
ठंडी रातो मे हम भी पयाल पर सोये थे !!
कभी हमने भी............... महुए पिरोये थे !!!
एक दिन हम जो जागे,
गाँव से अपने भागे !
सारे सपने ना जाने हमने कहाँ डुबोये थे !!
कभी हमने भी गेहूं की बाली मे महुए पिरोये थे !!! --”काज़िम” जरवली