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माँ / इवान बूनिन

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»  माँ

दिन हैं गहरे जाड़े के
रात-रात भर स्तेपी<ref>सैकड़ों किलोमीटर तक फैले वृक्षविहीन मैदान</ref> में
हिम तूफ़ान गरजते रहते हैं
        हर चीज़ पर बर्फ़ लदी है
        हिम‍अंधड़ों के उत्पात
        सब बेचैनी से सहते हैं
बुराक हिम से अकड़ गए खेत
घर-खलिहान कुनमुना रहे हैं
        पवन चोट करता खिड़की पर
        शीशे तक झनझना रहे हैं
कभी-कभी घर में घुस हिमकण
ऐसा नाच दिखाते हैं
        रात को जुगनू चमकें जगमग ज्यों
        सबका मन बहलाते हैं

घर के भीतर जली है ढिबरी
लौ काँपे है उसकी
        छाई हलकी पीली रोशनी
        रात ले रही है सिसकी
माँ का रतजगा हुआ है आज
वह घर-भर में टहले जाती
        चिन्तित है बेहद, मौसम ख़राब है
        वह पलक तक झपक न पाती
जब ढिबरी बुझने को होती
किसी पुस्तक की आड़ लगाती
        और बच्चा जब रोने लगता
        उसे काँधे लगा लोरी गाती

रात फैलती ही जाती है
अनंत काल-सी बढ़ती
        हिमतूफ़ान दुष्ट शोर मचाता
        ज्यों हिला रहा यह धरती
माँ बेहद घबराती है तब
झपकी बेहाल करती उसे जब

        तभी अचानक हिम अंधड़ का
        तेज़ भयानक झोंका आया
माँ काँप उठी भीतर तक गहरे
लगा उसे घर थरथराया
        चीख़ सुनी उसने हलकी-सी
        जैसे दूर कोई चिल्लाया

स्तेपी<ref>सैकड़ों किलोमीटर तक फैले वृक्षविहीन मैदान</ref> में वह पड़ी अकेली
कौन भला मदद को आए
        आँखें भरीं लबालब अश्रु-जल से
        होंठ लगातार फड़फड़ाएँ
थकी नज़र चेहरा उदास है
मन उसका बेहद घबराए
        चौंक-चौंक उठता बच्चा भी
अपनी काली-बड़ी आँखे फैलाए...

(1893)

मूल रूसी भाषा से अनुवाद : अनिल जनविजय

शब्दार्थ
<references/>