भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

माँ / निशान्त जैन

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बूँद प्यार की बस उड़ेलती,
आँगन की फुलवारी माँ।
 
खेल-खेल में मुन्नू की है,
बनती रोज सवारी माँ।
 
मुश्किल चाहे झंझट कितने,
गाती राग मल्हारी माँ।
 
बिन नागा के सुबह-सवेरे,
देती रोज बुहारी माँ।
 
थककर भी एक शिकन न लाए,
जादू भरी पिटारी माँ।
 
मुश्किल बिन माँ के एक पल भी,
सचमुच जग से न्यारी माँ।
 
जग सारा हो एक तरफ पर,
एक अकेली भारी माँ।