माँ / प्रमोद कुमार
माँ न कोई जगह छोड़ती, न समय
परन्तु कहीं बोलती नहीं,
वह मेरी हर पढ़ाई में साथ थी
हर विषय में, हर परीक्षा में
टिफ़िन के डिब्बे से झाँकती चुपचाप
पिता जब भी घर से बाहर पैर रखते
माँ चुपके से
काग़ज़ पर लिखकर
मुझे उनकी जेब में डाल देती
और निश्चिनत हो जाती उनसे
दूर कहीं तेज़ भागती रेल को
जिसमें मैं भी बैठा होता
माँ ऑंखें बन्द कर पकड़ लेती,
मुझे आशीर्वाद देने में
वह भर देती पूरी रेल को
पूरी पृथ्वी को,
हर पल की यात्रा पर
अपनी अंतहीन शुभकामनाओं से भर देती पूरे ब्रह्माण्ड को
और छोटी यात्रा पर निकले लोग
वहाँ से बन जाते लम्बी यात्रा के मेरे सहयात्री
जैसे एक ही माँ की संतान हों,
सब की माँ निकल पड़ती
तीर्थ-यात्रा पर बच्चों के साथ,
माँ क्या देख कर
पहले से अधिक चुप रहती है!
वह बिना कुछ बोले
कितना कुछ कह देती है आज के समय पर
अब तक कहीं नहीं लिखी गई
माँ जैसी सशक्त दूसरी कोई कविता
शायद वह देख लेती है
अन्दर तक इस समय को
जो हर समय मुझे सयाना बनाए रखता है
माँ के मौन की छटपटाहट
भर देती है मुझे असहनीय छटपटाहट से
कि मैं इस समय को चित-पट कर
बन जाऊँ माँ का एक बच्चा
कोई बड़ा कारण है,
कि बाज़ार अपने हर विज्ञापन में
माँ के विरुद्ध
कुछ-न-कुछ ज़रूर बोलता है ।