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मानिनि / विमल राजस्थानी

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‘‘सुखी सुनयने! जीवन में मैं प्रथम बार हारी हूँ
संभवतः त्रिभुवन में सर्वाधिक विपन्न नारी हँू
अवहेलना,उपेक्षा,यह अपमान सहूँ मैं कैसे
तिरस्कार के अगम सिन्धु मे कहो, बहूँ मैं कैसे
यदि है भिक्षुक सिद्ध, व्यथा क्या नहीं जानता होगा
यह एकैकी प्रेम-कथा क्या नहीं जानता होगा
छिपी हुई क्या उससे री! मेरे मन की हलचल है
तप्त रेत पर छटपट करती,सम्मुख जल ही जल है
रोम-रोम मरा सखि! अवहेलना-अग्नि में जलता
विफल प्रेम में सूखे तृण-सा धू-धू हृदय धधकता
जिसको मैंने साँस-साँस में शत-शत बार पुकारा
नहीं देखी है क्या अन्तर-दृष्टि अश्रु की धारा
वज्रवधिर है क्या, चीखे का रोर न सुन पाता है
है तो पुरुष, प्रेम को फिर बोलो, क्यो ठुकराता है
भेज तुम्हे मैने तो उसको मात्र यहाँ बुलवाया
कहीं तुम्ही ने तोे कुछ उल्टा-सीधा नहीं बताया
सच है-मुझ जैसी नारी यदि नर को किसी बुलाये
यदि न अर्थ वह इसका सीधा प्रेम प्रसंग लगाये
निश्चय ही वह अज्ञानी कोई बिरला ही होगा
क्या होता नारी का सुख उसने न स्वप्न में भोगा
क्या हम दोनों नहीं सिद्धियों में है एक बराबर
भिक्षुक का अन्तर दीपिक,वाव बाहर से भास्वर
भीतर-बाहर मिल जब एक रूप होते हैं
तभी सृष्टि के मूल भूत सिद्धान्त भूप होते हैं
पाँचो तत्व प्रजा होते हैं, सरचना चलती है
मिट्टर की असंख्य प्रतिमाओं में बाती-बलती है
नारी के जीवन में जो नर, दुन्दु बजा, आता है
सच कहती हूँ-अन्तरतम में तुरत उतर जाता है
 मुझको क्या हो गया, स्वयम् मैं समझ नहीं पाती हूँ
चेतना के द्वार पहुँच कर लौट-लौट आती हूँ
कई अटपटे प्रश्न हृदय को सखि! मथ-मथ जाते हैं
सिर धुन-धुन गुनती पर उत्तर मुझे न मिल पाते है
हम नारियाँ पुरुष को सुख कौन-सा नहीं देती हैं
बदले में किंचित अपना भी तोष माँग लेती हैं
ये खंजन से नयन, काम के केशर-शर चलते हैं
रो-रो कर री! नहीं, आर्त जन पुलक-पुलक मरते हैं
ये मांशल विस्तृत नितम्ब आमंत्रण पत्र नहीं क्या
गोल, कठोर उराज पुरुष को मिलते और हीं क्या
लाल कपोल, अधर अरुणित, कटि क्षीण पृथुल जंघाएँ
साधारण नर क्या, अंनग भी इन पर बलि-बलि जाये
मृदु चुम्बन, मधुरालिंगन नारी ही दे सकती है
दान उलीच-उलीच कर्ण-सा कभी नहीं थकती है
मधुर वेदना या कि गुदगुदी नारी ही देती है
ज्ञान-शून्य हो जाता नर तो नारी ही खेती है-
जीवन-नैया, बन पतवार किनारे ले आती है
भरी दुपहरी में सिर पर घन बन कर छा जाती है
अन्य कौन दे सकता है नर को आँचल की छैंया
उँगली पकड़ पचा सकता है अन्य कौन ता-थैया
पुरुष मात्र आश्रय दे सकता, और भला क्या देगा
वह जीवन भर नारी से लेगा ही बस, लेगा
मुझको क्या दे सकता भिक्षुक, स्वयम् माँगने वाला
बस, अधियारे मन को दे सकता थोड़ा उजियाला
नारी हाती तृप्त, सदा अतृप्त रहेगा नर ही
मेघों से याचना करेगा जीवन भर ऊसर ही
सच कहती हूँ फिर भी मन के भीतर द्वन्द्व मचा है
विधि ने ना-नारी के भीतर कैसा स्वाँग रचा है
आकर्षण की डोर सृष्टि के अथ से बँधी हुई है
नारी के नयनों की प्रत्यंचायें सधी हुई हैं
नहीं एक केे बिना दूसरा कभी पूर्ण हो पाया
प्रकृति-पुरुष की देख रही हो क्या न बहुगुणी माया
मैं अभाव की पूर्ति चाहती, चाहे जैसे भी हो
नहीं चाहती मै अपना जीवन काटूँ यों रो-धो
भिक्षुक की पाकर ही मेरा मन-संसार हँसेगा
मेरा रोम-रोम हर्षेगा,मेरा प्यार हँसेगा
असंुतुलित यह मन लेकर री ! जा तू सत्वर
एक बार उस भिक्षुक के सन्निकट पुनः तू जा ना
मेरी टीस, वेदना,पीड़ा व्यथा -कथा बतलाना
एक बार, बस, एक बार वह अंतःपुर में आये
दासी जान, चरण-कमलों की रज थोड़ी दे जाये
प्रेम-निवेदन ठुकरा दे, आतिथ्य भोग ले मेरा
एक बार, बस एक बार कर ले वह रैन-बसेरा
क्या जाने वह कौन समय होगा, जब वह आयेगा
दिन बीतेंगे, वासव को क्या ऐसी ही पायेगा
किन्तु, नहीं, रहने दे उसको मोक्षामृत पीने दे
मिलनातुर विविग्न मन को यों ही जल-जल जीने दे’’