मुक्तक-41 / रंजना वर्मा
कान्हा मिले  मुझे तो परिवार छोड़ दूँ मैं
परिवार चीज क्या है घर बार छोड़ दूँ मैं।
ऐ  सांवरे  मुझे तू  इक  बार  देख  ले तो
तेरे  लिये  ये  सारा  संसार  छोड़  दूँ  मैं।।
चले जब राह  अनजानी  भटकते  रह  गये दोनों
जमाने  की  निगाहों में   खटकते  रह  गये  दोनों।
किया था कौन सा अपराध जो हमने मुहब्बत की
न तुम समझे न हम समझे तड़पते रह गये  दोनों।।
रहो  प्रेम से मिल सभी, करो  व्यर्थ  मत रार
सारी  दुनियाँ  एक  है, सभी   एक   परिवार।
भाई   भाई   में    कभी,  हो    जाता    संघर्ष
किन्तु नहीं घटता कभी, इस से उन का प्यार।।
शीत से कम्पित  हृदय में  चाह पाली
दे  बढ़ा  कोई  इधर  भी  एक  प्याली।
दूध शक्कर  की  नहीं चिंता रही अब
चाय मिल जाये भले फीकी या काली।।
यहाँ यह आजकल अक्सर हुआ है
समा  हर  रोज  ही  बदतर  हुआ है।
न है  पावन  हवा  जो  साँस भर लूँ
अजब   दूषण  भरा  मंज़र  हुआ  है।।
 
	
	

