मुक्तक-47 / रंजना वर्मा
शाश्वत है  सम्बन्ध आत्म का ईश्वर से
पा  जाता  देवत्व  तभी  मानव  नर  से।
हाथों पर है भाग्य विधाता लिख जाता
वही मिलेगा  जो  भी  कर्म  करो कर से।।
निवारो निवारो  सकल  कामना को
बसी जो हृदय में विकल वासना को।
किसी को न अब वैर की  राह  भाये 
मिटा दो मिटा दो विषम  भावना को।।
जहाँ पर हो अँधेरा  रौशनी  उपहार  कर देना
भटकती मौत हो तो जिंदगी त्यौहार कर देना।
मिटाना है अगर तो तुम दिलों के द्वेष को मारो
अगर तुम से बने तो  शत्रुता  संहार  कर देना।।
मुहब्बत है अजब जज़्बा  गजब  इस की कहानी है 
कहीं  रसखान   है  पागल  कहीं  मीरा  दिवानी  है।
है इक एहसास जाने कब किसी के दिल मे पैदा हो
कहीं  पर्वत  की  ऊँचाई  कहीं  दरिया  का पानी है।।
झलक एक मीरा ने  पायी  उस की सपने में
हुई बावरी उसी दिवस से  रही  न  अपने में।
दिवस रैन उस की ही मूरत आंखों में बसती
मगन हो गया मन मीरा का हरि को जपने में।।
 
	
	

