मुक्तक-68 / रंजना वर्मा
मुझे तेरी मोहब्बत का अजब ये' जुनून हो जाये
मेरा आँसू  ख़ते उल्फ़त का ही मजमून हो जाये।
चढ़ा  ऐसा नशा तेरा कि अब बस में न मेरा मन
न कर बदनाम ग़र  अरमाँ का तेरे  खून हो जाये।।
प्रलयंकर  है  शत्रु  सैन्य  पर  क्रुद्ध हो गया
जब  मानवता  से  आचरण विरुद्ध हो गया।
है फरेब  धोखा  दहशत  का  लिया  सहारा
आत्मोन्नति का मार्ग स्वयं अवरुद्ध हो गया।।
थक गया है बहुत क्लांत है
आज मानव   तभी  शांत है।
राह  जानी  नहीं  सत्य  की
इसलिये  ये  हुआ  भ्रांत  है।।
है ये भीगा हुआ समां कैसे 
आज गमगीन  है जहां कैसे।
बेकसूरों का  खून है  बहता
रो पड़ा  आज आसमाँ कैसे।।
आज उल्फ़त का हम को निशां मिल गया
खुशबुओं  से  भरा  गुलसिताँ  मिल  गया।
दोस्त   सच्चा   तलाशा   किये   उम्र  भर
रहबरों   का   हमें    कारवाँ    मिल   गया।।
 
	
	

