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मुक्तक-74 / रंजना वर्मा

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फूल खिल रहे उपवन उपवन
छायी हरियाली मन भावन।
ताप मिटा धरती सरसायी
आया सावन मास सुहावन।।

कर रही हूँ बात अपने लाल से
लाल से औ बाल से गोपाल से।
एक मोबाइल मुझे जो मिल गया
दूर हूँ संसार के जंजाल से।।

दूर है वो तो नयन में नीर है
कसकती अब भी हृदय में पीर है।
दे दिया तकनीक ने पर आसरा
अब मिला बेचैन मन को धीर है।।

दहशतगर्दों की दहशतगर्दी का उठो जवाब दो
भारत माता के नयनों को फिर अखण्डता ख़्वाब दो।
आज तोड़ दो उन हाथों को जो दामन की ओर बढ़े
माँ का दूध कर्ज है तुम पर उस का उठो हिसाब दो।।

दिया आतंक को बढ़कर सदा जिसने सहारा है
वही दिखला रहा खुद को बड़ा सीधा बिचारा है।
उठो सर पर कफ़न बांधे हुए मेरे वतन वालों
मिटा दो नाम जुल्मी का धरम यह ही तुम्हारा है।।