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मूल्यहीनताएँ / महेश सन्तोषी

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कीमतें मूल्य मान्यताओं की
पुरानी पीढियाँ अब
पुराने मूल्यों को साथ लिय ही मर जाएँगीं,
न वे नये मूल्यों को तन से जी सकेंगी
न मन से अपना पाएँगी!

मूल्यों के बीच अब पीढ़ियों के फासले हैं
पीढ़ियांे के बीच घनी संवादहीनताएँ हैं
ध्वनियों की, स्वरों की, अर्थों की
असीम शून्यताएँ ही शून्यताएँ हैं,
अब लोग जैसे जीते ही
बाज़ारवाद के वास्ते हैं,
जो बड़ी-बड़ी कीमतों पर बिक रही हैं,
वे निरी निजी मूल्यहीनताएँ!