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मेरा लेखन / नरेश अग्रवाल
Kavita Kosh से
निर्मल वक्त है यह लिखने का
कलम थामे सोचता हूँ
लिखूँ क्या सिर्फ अपने बारे में
या और लोगों के लिए भी
लेकिन थोड़ा सोचने का वक्त चाहिए
बुझी-बुझी हैं अभी आँखें मेरी
और दिमाग भी कमल की तरह खिलता हुआ
सपने टूट गए हैं और
दौड़ रहा हूँ वास्तविकता की ओर
पड़ी है ढ़ेर सारी चीजें
करना है चुनाव किसे उठाऊँ, किसे नहीं
या सबको देखूँ एक दृष्टि से
लेकिन ये दोनों आँखें कभी नहीं होती हैं एक साथ
अलग-अलग दृष्टिकोण से देखती हैं सबको
कोशिश करता हूँ मिट जाए भेदभाव
और प्रेम की रोशनी बिखरे सब पर
समान दृष्टि से।