मेरी मुक्ति / शर्मिष्ठा पाण्डेय
कल रात न जाने बात हुई क्यासब रोये हम सोये
कुछ और अनोखी बात हुईसब मिले और हम खोये
कल सबके कपडे धूल अटेऔर अपने नए नए
सबके मुख देखी घोर उदासीऔर हम चैन पगे
सिरहाने जलती ज्वालाऔर करुण रुदन ये किसकी
मूढ़, अज्ञानी मैं जान न पायीकौन ले रहा सिसकी
मेरे मुख अपार शांतिह्रदय में न कोई, कोलाहल
भीड़ में कोई कहे जा रहाचल भाई, अब जल्दी चल
प्रात: सूर्य की अरुण रश्मि भीअब हो चली मध्यान्ह
सबके हाथ पुष्प पंखुडियांबरबस दिए उछाल
आज स्नान भी दिव्य रहाचन्दन संग गंगाजल
मुक्ति दायिनी घृत, अमृत तुलसी दल
और, अंत में आई अब वह घड़ी विदाई
मस्तक तिलक, दूर्वादल लेस्वजनों ने रीत निभाई
अब करती हूँ आह्वान मैंमहारुद्र, दिक्पाल का
मुक्ति प्रदाता महिमामंडित, महादेव, महाकाल का
मुक्त होने को व्याकुल हैआत्मा, काया मलिन से
बस प्रिय! तुम आवाज़ न देनामुझको अब पीछे से
तुम्हारी प्राणदायिनी वाणीखींच ही लाती बारम्बार
मुझको, उस असीम सुख गृह से
मेरे प्रिय! अब विवश न करोबंधन तोड़ ही जाओ
क्षमा करो, अब मुझे मुक्त कर जाओ
हाँ, मुझे मुक्त कर जाओ