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मैं(सोनेट)/ अनिमा दास

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नीलाकाश की मुक्त विहंगिनी मैं, हैं स्वर्णिम वीची मेरे पंख
लीन हो जाती जलद में जब नादित होता तेरा महा शंख
केंद्रित होती दृष्टि पटल पर असंख्य स्वप्न की तारिकाएँ
हृदय-उपवन में होतीं प्रस्फुरित सहस्र क्षुधित लतिकाएँ।

मधुरिम करो देह मृदा को, के मैं तीक्ष्ण व्यथाओं को पी लूँ
मृत माने संसार किंतु, महार्णव के अतल गर्भ में ही जी लूँ
अल्प सांध्य तम में, यह तन प्रतिच्छाया बन न लुप्त हो जाए
देवद्रुम-सा, कर अंकबद्ध मुझे ऐसे, के श्वास अतृप्त हो जाए।

तृष्णा की मेघमालिनी बन, स्तीर्ण रहूँ अग्निस्नात गगन पर
मरुस्थल की मृगतृष्णिका-सी, होती रहूँ अनुभूत जीवन भर
क्षत सारे अलंकार बन जाए मेरे कि मैं हूँ शैलीय मालती
यज्ञवेदी पर गुंजित देव मंत्र के शेष श्लोक क्यों मैं पुरावती।

ईप्सा के मुक्ताओं से अभिपूर्ण, द्रवित दृगों के कृष्णिम तट
क्या प्राप्ति-रेखाएँ होंगी विकसित, संतृप्त होगा कल्पवट?
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