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मौत / नज़ीर अकबराबादी

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हर एक को मौत का मज़ा चखना है

दुनियां में अपना जी कोई बहला के मर गया।
दिल तंगियों से और, कोई उकता के मर गया।
आक़िल<ref>बुद्धिमान</ref> था वह तो, आपको समझा के मर गया।
बेअक़्ल छाती पीट के, घबरा के मर गया।
दुःख पाके मर गया, कोई सुख पाके मर गया।
जीता रहा न कोई, हर एक आके मर गया॥1॥

दिन रात धुन मची है यहां और पड़ी है जंग।
चलती है नित अजल<ref>मौत</ref> की सिनां<ref>भाला</ref> गोली और तुफ़गं<ref>बन्दूक या तुपक</ref>।
जिसका कदम बढ़ा वह मुआ<ref>मरा</ref> वहीं बेदरंग<ref>शीघ्र</ref>।
जो जी छुपा के भागा, तो उसका हुआ यह रंग।
वह भागने में, तेगो तबर<ref>कुल्हाड़ा, फरसा</ref> खाके मर गया।
जीता रहा न कोई, हर एक आके मर गया॥2॥

पैदा हुए हैं खल्क़ में अब जितने जुज़ओ कुल।
या चुप गुज़ारी उम्र व या घूम कर चुहल।
जब आन कर फ़ना<ref>मौत</ref> ने, खिलाया अजल का गुल<ref>मृत्यु का फूल</ref>।
काम आई कुछ किसी को, ख़मोशी न शोरो गुल।
चुपके कोई मुआ कोई चिल्ला के मर गया।
जीता रहा न कोई, हर एक आके मर गया॥3॥

गर लाख इश्रतों<ref>खुशी, आनन्द</ref> से रही दिन में धूम धाम।
या सौ मुस़ीबतों से, हुआ ग़म का अज़दहाम<ref>आधिक्य</ref>।
आखिर को जब अजल ने, किया आन कर सलाम।
ग़म में किसी हसीं<ref>सुन्दरी</ref> के, कोई हो गया तमाम।
कोई हूर<ref>स्वर्ग की सुन्दर स्त्रियां</ref>, छाती से लिपटा के मर गया।
जीता रहा न कोई, हर एक आके मर गया॥4॥

पढ़कर नमाज़ कोई, रहा पाक वा वजू़<ref>वजू किए हुए, पवित्र</ref>।
कोई शराब पीके, फिरा मस्त कू बकू<ref>गली दर गली</ref>।
नापाकी<ref>अपवित्रता</ref>, पाकी<ref>पवित्रता</ref>, मौत के ठहरी न रूबरू<ref>सामने</ref>।
कोई इबादतों से मुआ होके सुर्खरू<ref>प्रार्थना</ref>।
नापाक रू स्याह<ref>सम्मानित</ref> भो, पछता के मर गया।
जीता रहा न कोई, हर एक आके मर गया॥5॥

कर दिल के आइने के तईं, साफ़ एक बार।
कश्फ़े कु़लूब<ref>दिल की बात</ref> दिल पे, किया अपने आश्कार<ref>प्रकट</ref>।
जब पैक<ref>हरकारा, दूत</ref> ने अजल के, किया आन कर गु़जार।
काम आई रौशनी, न करामात की बहार।
कामिल<ref>चमत्कारी साधु</ref> फ़क़ीर, खल्क़ में कहला के मर गया।
जीता रहा न कोई, हर एक आके मर गया॥6॥

बिलफर्ज<ref>मान लो कि</ref> गर किसी को हुई याद कीमिया<ref>सोना-चांदी बनाने की कला</ref>।
या मुफ़्लिसी<ref>गरीबी</ref> में एक ने खूने ज़िगर पिया।
कोई ज़्यादा उम्र से, एक दम नहीं जिया।
सूखी किसी ने रोटी चबा, गम में जी दिया।
क़लिया, पुलाब ज़र्दा कोई खाके मर गया।
जीता रहा न कोई, हर एक आके मर गया॥7॥

पहना लिबास खूब अगर इत्र का भरा।
या चीथड़ों की गूदड़ी, कोई औढ़ कर फिरा।
आखि़र को जब अजल की, चली आन कर हवा।
पूले के झोंपड़े को, कोई छोड़कर चला।
बाग़ो, मकां, महल, कोई बनवा के मर गया।
जीता रहा न कोई, हर एक आके मर गया॥8॥

गेसू<ref>केश, बाल</ref> बढ़ाके कोई, मशायख़<ref>सूफी, पीर</ref> हुआ यहां।
या बेनवा<ref>दरिद्र</ref> हो कोई, हुआ खुड़मुडा यहां।
जब मुर्शिदे अजल<ref>मौत का फरिश्ता</ref> का, क़दम आया दरमियां।
कोई तो लम्बी दाढ़ी, लिए हो गया रवां।
मूछें, भवें, तलक कोई मुंडवा के मर गया।
जीता रहा न कोई, हर एक आके मर गया॥9॥

गर एक वेविक़ार<ref>बेइज़्जत</ref> हुआ एक क़द्र दार।
सर पर लगा जब आन के, तेगे़ अजल का वार।
वे क़द्री काम आई, किसी का न कुछ विकार<ref>इज़्ज़त</ref>।
था वेहया, सो वह तो मुआ खोके नंगो आर<ref>शर्म, गैरत</ref>।
और जिसको शर्म थी, सो वह शर्मा के मर गया।
जीता रहा न कोई, हर एक आके मर गया॥10॥

कोई मोती चाबता था, कोई मोंठ और मटर।
जिस दम क़ज़ा ने हाथ में ली तेग़ और सिपर<ref>ढाल</ref>।
काम आई कुछ फ़क़ीरी, न कुछ तख़्त और छतर।
यह ख़ाक पर मुआ, वह मुआ तख़्त के ऊपर।
थी जिसकी जैसी क़द्र वह बतला के मर गया॥
जीता रहा न कोई, हर एक आके मर गया॥11॥

आशिक़ हो गर किसी ने, किसी गुल की चाह की।
आशिक़ ने अपने, इश्क़ बढ़ाने में जान दी।
और जब अजल की दोनों से आकर लगन लगी।
माशूकी काम आई, किसी की न आशिक़ी।
दिलबर भी अपने हुस्न को, चमका के मर गया।
जीता रहा न कोई, हर एक आके मर गया॥12॥

कितनों में बढ़के ऐसी बढ़ी उल्फ़तों की चाह।
जो जिस्मो जान एक हुए उनके वाह-वाह।
आशिक़ मुआ तो मर गया, माशूक ख्वाम-ख़्वाह।
माशूक मर गया, तो वह आशिक़ भी कर के आह।
उस गुलबदन की क़ब्र उपर जाके मर गया।
जीता रहा न कोई, हर एक आके मर गया॥13॥

क्या काली पीली शक्ल के, क्या गोरे गुलइज़ार<ref>गुलाब जैसे सुकुमार और कोमल गालों वाले</ref>।
आशिक़ कोई है और कोई माशूक तरहदार।
आक़िल<ref>बुद्धिमान</ref> हकीमो<ref>बुद्धिमान</ref>, आमिलो<ref>अमल करने वाला</ref>, फ़ाज़िल<ref>पढ़ा लिखा</ref> रिसालदार<ref>फौज के दस्ते का सरदार</ref>।
पण्डित नुजूमी<ref>सितारों के द्वारा भविष्य बताने वाला ज्योतिषी</ref>, वैद<ref>वैद्य</ref>, चः नादां<ref>मूर्ख</ref>, चः होशियार।
दो दिन की शान, हर कोई दिखला के मर गया।
जीता रहा न कोई, हर एक आके मर गया॥14॥

क्या ओछी ज़ात पात के, अशराफ़<ref>शरीफ़ लोग</ref> क्या नजीब<ref>कुलीन</ref>।
क़िस्मत<ref>भाग्य</ref> सेफूटी कौड़ी, किसी को न हुई नसीब<ref>प्राप्त</ref>।
जिस दम क़ज़ा के हाथ ने, बंद आंख की हबीबी<ref>दोस्त</ref>।
क्या होशियारो आक़िलो दानाओं<ref>बुद्धिमान</ref> क्या तबीब<ref>हकीम</ref>।
कोई ख़जाने ख़ाक़ में गड़वा के मर गया।
जीता रहा न कोई, हर एक आके मर गया॥15॥

मरने से पहले मर गए, जो आशिक़ाने ज़ार<ref>दिल से चाहने वाले</ref>।
वह ज़िन्दए अबद<ref>हमेशा जीवित रहने वाले</ref> हुए, ताहश्र<ref>प्रलय तक, कयामत तक</ref> बरक़रार<ref>कायम</ref>।
क्या कातिबान<ref>लिखने वाले</ref> अहले क़लम<ref>साहित्यकार</ref> ख़ुश नवीसकार<ref>सुन्दर लिखने वाले।</ref>।
जितनी किताबें देखते हो, लाख या हज़ार।
कोई लिख के मर गया, कोई लिखवा के मर गया।
जीता रहा न कोई, हर एक आके मर गया॥16॥

पीरो<ref>गुरू</ref> मुरीदो<ref>शिष्य</ref> शाहोगदा<ref>बादशाह व फ़कीर</ref>, मीर<ref>मुख्य</ref> और वज़ीर<ref>मंत्री</ref>।
सब आन कर अजल के हुए दाम<ref>पिंजड़ा</ref> में असीर<ref>कैदी</ref>।
मुफ़्लिस<ref>गरीब</ref> ग़रीब साहिबे ताजो इल्म सरीर<ref>लिखने का इल्म</ref>।
कौन इस जहाँ में ज़िन्दा रहा ऐ, मियाँ ‘नज़ीर’।
कोई हजारों ऐश, की ठहरा के मर गया॥
जीता रहा न कोई, हर एक आके मर गया॥17॥

शब्दार्थ
<references/>