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मौसमी आदमी / ओमप्रकाश सारस्वत

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कुछ मेरे तथाकथित
हिन्दी भाइयों की मति कहती है कि
कविता यहाँ नहीं होती
वह किसी खास देश में उगती है
कुकुरमुत्तों की भांति
कलियों से छत्तर के रूपों तक
तड़ित कड़क से

पर काश वे यह भी स्वीकारते
कि कविता का कुंभपर्व
बावड़ी में भी सुई वक्त उदित होता है
जिस वक्त गंगा में

कविता बावड़ी से गंगा तक
एक ऐसी अंतःसलिला है
जिस पर जितना तुम्हारा
उतना ही अधिकार है हमारा भी
मेरे लिए कविता
सिए से पाँव के टख़नों तक
यकसां बेंधने बाली एक शतमुखी टीस है
जो आकुल हो-हो कर
माँगती है शब्द-दर-शब्द
व्यक्त होने को
खुलने को

आज अनुभूति की अस्मत पर
शब्द चढ़ बैठे हैंअर्थ सब मूक हैं
ज्यों गूंगों की इज्ज़त से
खेल रहे हों बहरे
और पहरेदार ठोक रहे हों
शाबासी उनकी काली करतूतों पर
चालाकी हमें छोड़ नहीं रही
स्वागत के समय सदा
‘प्रैस्ड’ कमीज़ ही होती है आगे
अथवा वास्केट पर चढ़ा कोट

बनियाअन तो सारी उमर, कमीज़ की खाल बचाने
या बदन की बदबू समेटने
हमारी साजिश का शिकार
धोबी की मार खाया हुआ
एक शरीफ़ कपड़ा है
जो हर रोज़ हमारे
सीने के करीब रह कर भी हमें चाकू नहीं घोंपता

यहाँ अपने आप ज़हर पीते रहने का नाम
शराफ़त है

यहाँ असंख्य विरोध भरे पड़े हैं
गतियों में,
(लोग गुसलखानों में, घोड़ों की भांति पेशाब करके बाज़ार में ‘डीसेंसी’ ढूंढते हैं)

मात्र देह धुलने से ही हम
स्वयं को मंदिर जाने के
काबिल समझ लेते हैं

केवल कमरों की सफेदी को ही हम वैश्विक मैल का
उपचार मान बैठे हैं

बस एक नहर बनवा कर ही
आश्वस्त हो जते हैं हम, कि
अब गंगा सारे गाँवों में फैल जायेगी
(और दादियाँ घर में ही
हरिद्वार देख लेंगी)

या रेत की पट्टी पर
रेल की पटड़ी दौड़ कर
जोड़ देगी सारे शहरों के दिल
पूरे कस्बों के मन?

पर यह कैसे हो सकता है ?

हाँ,हो भी सकता है
अगर तुम्हारी धड़कनें:
दूसरों के ज्वर से कम हो जाए
तुम्हारा स्नेह:
दूसरों का ताप शान्त कर सके
तुम्हारा सुखः
औरों की रगों में दौड़ जाए लहू बन कर
विद्युत्तरंत समान

अन्यथा टूटे हुए रिश्ते
उधर नहाते रहेंगे रेत में
और इधर प्यार,
पोखरों में डूब के मर जाएगा
(यूं डूबने के लिए चुल्लू भर भी पानी काफी होता है)

देखो, मुँह लटकाए बूढ़े स्तनों की भांति
फिर सहज नहीं होते रिश्ते
दुनिया की सारी चोलियां भी मिल के
ढले यौवन को भी बांध नहीं सकतीं
यह अजीब विदम्बना है कि
हमने जब भी कोशिश की सबसे निबाहने की
शेष मार-मार कर, प्यार जागाने की
(पर इसका तुम्हें क्या पता)
तब उसके बदले हमें कालकूट विष मिला
भोले शंकर की परम्परा का शिकार हमीं बने

और, तुम्हें क्या पता
हमने कितनी रातें
दांतो में फंसे अन्न को
पुनः निगल-निगल के गुजारी हैं

पानी का घूँट पीकर
केवल नींद लाने को जागे हैं; सारी रात
रात के पहरूओं के पहरेदार भी रहे हम

पर इसके बावजूद
वे हमें सदा पढ़ाते रहे त्याग का पाठ
हमें सिखाते रहे, मेहमान मार के मरना

हमें सारी रामायण रटवा दी
और ख़ुद महाभरत की द्यूतविद्या में
होते रहे पारंगत

हम जिस भी घास पर बैठे
वे वहीं थूकते रहे

पर हमने पढ़ रखा था कि
वारह बरस से बाद फिर से
हर मिट्टी के दिन फिरते हैं
अत: हम आश्वस्त रहे

किंतु बात फिर भी मक्कारी की
घोंटनी से बाहर नहीं निकली
हमने नहीं जाना कि
कुछ खास समझदार आदमी
घन की अनुपात में ढल गए
चोट पड़ने से पहले ही बिछ गए
दोबारा मुड़ने को
कहीं से भी
किसी सिरे से भी
फिर जुड़ने को

पर हम रहे अपनी नज़रों में
बुद्धिमान
और उनकी नज़रों में
नालायक

क्योंकि हम विछ नहीं सके/ नहीं सकते
पर लोग कहते हैं कि
कायदे की बात तो अब यह है कि
आजकल आदमी का
मौसमी होना ज़रूरी है
इस नुस्ख़े को दुनिया में कई समझदार
आजमा चुके हैंइसलिए उनमें से निन्यानवें लोगों के पास
आज रोबदार नामों की
इज्जतदार मोहरें हैं

साहब ! हम क्या बताएं
अब वे साले हमें
बहुत घटिया गालियाँ बक के
बहुत बढ़िया ज़िन्दगी जी रहे हैं