युद्ध और उबासियाँ / चंद्रभूषण
पीछे उबासियाँ थीं और आगे युद्ध था
हमने नदी पार करने की सोची ताकि युद्ध में उतर सकें
अंतहीन चौड़ी लगती थी नदी
चाँदनी रात में उसकी लहरें ठोस चाँदी की तरह चमकती थीं
लेकिन हमें रोक पाता ऐसा उनमें कुछ भी नहीं था
जैसे-तैसे हमने नदी पार की
फिर एक नज़र डोंगियों पर डाली कि उन्हें कहीं छुपा दें ।
न जाने कब की एक आकाशवाणी हमारे जेहन पर छाई हुई थी
कि सब नावें जला देनी हैं तोड़ देने हैं सारे पुल
कि इस युद्ध से वापसी की कोई गुंजाइश नहीं छोड़नी है
यह सिर्फ़फ एक आकाशवाणी थी जिसे अनसुना किया जा सकता था
कोई आदेश नहीं था
कि इतने ही आदेश मानने वाले होते तो उस पार न पड़े रहते
यह हमारा चयन था हमारा अपना फ़ैसला
जो सुलगती डोंगियों के धुएँ में पक कर और गहरा हो चला था ।
फिर हम उधर बढ़े जिधर से युद्ध की आवाज़ें आ रही थीं
दरअसल वहां कई युद्ध एक साथ जारी थे
कहीं नगाड़ों की थाप पर मुखौटा बाँधे राम-रावण लड़ रहे थे
तो कहीं मुहर्रम के झपताल पर चटकी-डाँड़ खेला जा रहा था
हमें लगा शायद ग़लत जगह आ गए हैं
यही मौक़ा था जब पहली बार तुम मुझसे मुखातिब हुए
तुम्हारी आँखों में पहचानी मैंने वह रौशनी
जो हमें इन काग़ज़ी युद्धों के पार ले जा सकती थी ।
सबसे तीख़ी रौशनी वाला तारा सबसे जल्द मरता है-
तुमने कहा तो मुझे लगा इस तारे में दूब रोप देनी चाहिए
पीली गर्द में वह शाम ढल रही थी और चेहरे धुँधले पड़ रहे थे...
सब कुछ वैसा ही था जैसे आज था तुमसे मिलते समय
तुम इतने दिन कहाँ रहे दोस्त
किन-किन युद्धों में शामिल हुए कितनी नदियाँ पार कीं कितनी बार
आज तुम्हें सड़क पर एक लंबी नाव में आते देखा तो याद आया
ऐसी कितनी नावें जलाकर हम इस पार आए थे
उबासियों भरे इस थके हुए युद्ध में
जहां नदियाँ सिर्फ़ बीते दिनों की याद में बहती हैं ।