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युध्दबंदी / सरिता महाबलेश्वर सैल

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उस घर की खिड़की से
मैंने सुबह झाँका
जहाँ से कल शाम को
शहीद की शवयात्रा निकली थी

कल शाम खो गये थे
बहुत से रिश्ते
दुनिया वाले अपने-अपने
हिस्से का कर्त्तव्य करके सरक गये

खिड़की से झाँकती हूँ तो लगता है
गोलीबारी ख़त्म हुई
युध्द समाप्त हुआ
शहीद की जगह कोई
और तैनात हुआ
दुनियाँ ने नई राह पकड़ ली

किंतु इस खिड़की के अंदर
कितने सारे युध्द बंदी
विहल रहे हैं
कराह रहे हैं इनकी चित्कार
बाँध रखी है
दीवारों ने

किसी कोने में लाठी पड़ी है
बिस्तर पर सूनी कोख लिये
माँ आँसू पी रही है
सिदूंर ताक पर चढ़ गयी है
पालने में शुशु मृतदेह की आग से झुलस रहा है

खिड़की के अंदर की दुनिया
बन्दी हो गयी है
कभी न आजाद होने के लिए