भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रात / दिनकर कुमार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रात के ठण्डे हाथों ने छुआ मुझे
स्याह होंठों पर फूटे अस्फुट बोल
बाँसुरी की आवाज़ सो गई
कोमल सपनों की पंक्तियों ने कहा
चुनो अपनी इच्छा से चुनो
दूध की बारिश हवा महल की रोशनी

रात ने अपनी माँसल बाँहें फैला दी
पेशेवर अन्दाज़ में मुस्कराई
आओ आओ
समा जाओ
ज़ख़्मों से रिसते लहू को भूल जाओ
दिन ने जो बिखेरा था तुम्हें
गलियों में चौराहों पर
आओ समेट लूँगी
अणुओं को परमाणुओं को
वेदना को भावना को

रात ने भराई आवाज़ को
संयमित किया
और सुनाने लगी लोरी
चिड़िया ने आँखें मूँद ली
सड़क किनारे सो गए
मज़दूर-भिखारी-कुत्ते

रात के ठण्डे हाथों ने छुआ मुझे
और मैंने पराजय की पोशाक
उतार दी ।