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रात / निर्मला गर्ग
Kavita Kosh से
जिस रात की कोई सुबह नहीं
वह रात है
गुजरात
यह रात फैलाती ही जा रही है
घनी होती जा रहीं उसकी दुरभिसंधियाँ
सच होते जा रहे बारंबार दुहराए झूठ
यह छीन रही हमसे हमारी आवाज़
बदल रही हमारा सारा इतिहास
ज़हर घोलती हवाओं में
अट्टहास करती यह रात
विदेशी पूँजी से बहनापा रखती
जनता की जेबों में कर रही छेद
इस रात के बाज़ू सहस्त्र हैं
इसके हैं चेहरे अनेक ।
रचनाकाल : 2003