भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

राही / महेन्द्र भटनागर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जब आज तुम्हारे नयनों ने
युग-पथ पहचान लिया,
जीवन के हर अनुभव से
अपना और पराया जान लिया,
फिर क़दमों को भय क्या है ?
हिम्मत से आगे बढ़े चलो,
निर्भय हो आगे बढ़े चलो,
ताक़त से आगे बढ़े चलो !

राही बनकर निकले हो
क्या झंझा के घोर झकोरों से,
पथ के हिंसक चोर-लुटेरों से,
कंकड़-पत्थर की अविरल बौछारों से,
नाशक अस्त्रों के तीव्र प्रहारों से
डर जाओगे ?
कायर बन कर,
पीठ दिखा कर,
भग जाओगे ?

राही बन कर निकले हो
यदि झाड़ी-काँटों के घेरे से,
पथ पर छाये सघन अँधेरे से,
टकराने में सकुचाओगे,
तो निश्चय ही —

काँटों में फँस जाओगे !
दलदल में धँस जाओगे !
मिट्टी में मिल जाओगे !

आँखों में रोष उतारो,
फ़ौलादी मुट्ठी बाँधो,
बादल से गरजो-गरजो !
पर्वत की छाती को फोड़ो,
चट्टानों की दीवारों को तोड़ो,
दुर्दम दुर्जय धारा बनकर उमड़ो !
जिससे थर-थर काँपे
अवरोधी भूतों के टोली,
हो जाए सारे अरमानों की होली !
बिखरे केवल आज तुम्हारे
विश्वासों की,
आशाओं-अभिलाषाओं की रोली !

सौगंध तुम्हें मेरे राही !
रुकना न कभी,
जब तक निज बल से
उस ताक़त का चकनाचूर न हो —
जिसने क़ैद सबेरे को कर रक्खा है !
जिसने दिल की धड़कन पर
ख़ूनी पंजा रक्खा है !
तुम उसको रवि बनकर ध्वस्त करो !
पूँजीशाही दुनिया के
वैभव-युग को अस्त करो !