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रेडियोधर्मिता / अम्बिका दत्त

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धर्म ! अब धर्म नही रहा
रेडियोधर्मी हो गया है - वह
और रेडियोधर्मिता के प्रभाव
चाव से देख रहे हैं - हम सब
सचमुच, कितने विलक्षण है !

उन सबके चेहरे पीले हैं
बेजुबान लोगों के हाथों में हैं
अब सिर्फ धर्मध्वजाओं के डण्डे
वे बोलते हुए लड़खड़ाते हैं
चलते हुए लंगड़ाते है
उनकी जुबान पर असर है
खानदानी लकवे का
या आनुवांशिक पक्षाघात का
वर्ना वे, बात-बात में तुतलाते क्यों है ?

क्या हमने नहीं सुने बहुत से उड़ानटप्पु किस्से

स्कुलों से मास्टर गायब है
और कटोरदानों से रोटियाँ
वे सब/बीड़ियाँ बांधती है
उन सबकी/चड्डियां फटी हैं
वे सिर्फ/नाई है, चमार है
जुल्लाहे है, हम्माल है, दर्जी है
वे सबके सब/भले/बेकसूर/बेजूबान लोग
जुट पड़े हैं-खुदा को तलाशने

सभी अखबार भरे पड़े है
लाल-पीली बेहूदा, भदरंग खबरों से
मजहब की पीक-क्या निगली नही जा सकती ?

पता नहीं कब उग आई
उनके अन्दर/बेहिचक, अपने आप
तेज अफीम के नशे की कद्धावर फसल
लगता है इस बार किसी ने
हवा/अब सिर्फ नारे नहीं लगाती
बाज वक्त पूरी ताकत से बहकती है
उमड़ती है-घुमड़ती है
उमसती है-उठंगती है
वे/सबके सब बेखबर हैं
उन्हें पता ही नहीं
नशा जब खिलता है-अपनी पूरी तपान के साथ
बुरी तरह छा जाता है

पुराने दमे की तरह होता है उसका असर
छाती/जीभ/फेफड़ों
पेट/मुँह/हाथ/नाक/कान पर
तेज-तेज साँस चलने लगती है
दम घुटने लगता है
आँखों पर छा जाता है-अजीब सा धुआँ

मरीज/सब बेखबर है
उन्हें कौन समझाए
तुम्हें न ब्लड-प्रेशर है/न टी0बी0
न ही तुम्हारे खून में कैंसर का कीड़ा है
वातज/पितज/कफज-कुछ भी नहीं
तुम्हारे लक्षण बता रहे हैं
तुम्हें/सिर्फ धर्म-पीड़ा है

धर्म ! अब धर्म नही रहा
रेडियोधर्मी हो गया है - वह
और रेडियोधर्मिता के प्रभाव
चाव से देख रहे हैं - हम सब
सचमुच, कितने विलक्षण है !