लौकी / प्रत्यूष चन्द्र मिश्र
बारिश के बाद हम इसके बियों को गाड़ देते आँगन में
हल्का भूरा-खुरदुरा बिया कुछ ही दिनों बाद
धरती के सीने से निकलकर
आ खड़ा होता आँगन में हरे कोमल एक जीवित पौधे के रूप में
यह एक-एक इंच बढ़ता
हम एक-एक दिन गिनते
लौकी का वह पौधा जिसे हम ‘कद्दू’ भी कहते
थोड़े ही समय बाद घर के आँगन और छत पर फैल जाता
सफ़ेद फूलों और कोंमल फलियों से लद जाती पूरी छत
आश्विन और कार्तिक के महीने में जब हवा में पसरी रहती गुलाबी ठण्डक
लौकी के भतिये की सब्जी और दूध में उबालकर बनाया गया ‘लौकजाऊर’
हमें स्वाद की एक अलग दुनिया की सैर कराता
कितना पवित्र होता है कद्दू-भात और चने की दाल का ‘नहाय-खाय’
नवान्न के जलसे में खूब होती इसकी पूछ
बेसन में लपेट कर जब बनता इसका ‘बचका’
तो मुँह में पानी आए बग़ैर नहीं रहता
यह लौकी है लगभग गन्धहीन मगर स्वाद से भरपूर
अब भी मैं ख़ूब पसन्द करता हूँ लौकीमगर उसकी मिठास से खुद को महरूम पाता हूँ
लौकी के पौधे को देखे अरसा हुआ
मेरे बेटे को तो उसके फूल का रंग भी नहीं पता
लौकी और उस जैसे तमाम सब्ज़ियाँ और फल-फूल
कैसे और कहाँ से आते हैं हमारे घर में
बेटे को कुछ पता नहीं
बाज़ार जाता हूँ और ख़रीद लाता हूँ एक लौकी
देखता हूँ बेटे की थाल में सजा ‘बचका’
देखता हूँ स्वाद से इतर बेटे के पास लौकी की कोई याद नहीं