लौटना / अखिलेश श्रीवास्तव
कदम दर कदम बढ़ रहा हूँ चुपचाप
समय ने एक लाठी छुपा कर रखी है इस राह पर
किसी भी दिन सामने आ सकती है
नीरव पदचाप को बदल सकती है ठक-ठक में।
मेरे पीछे कई बकैंया चलते पाँव
जिनसे रूनझुन संगीत निकलता था
भाग रहे है अब
मेरे चेहरे पर धूल उडाते हुए.
धुँधलाई नजरों से देखा
अब लोगों के शरीर में कंधे नहीं थे
जहाँ टिक जाता क्षणभर
एक पेड़ ने अपनी एक टहनी दी
ठक ठकाते हुए कुछ दूर तक चला उसी भीड़ में
लौटना चाहता हूँ
किसी कंधे या घर तक नहीं उसी पेड़ तक
लौटा तो
उसने स्वागत में सारी शाखाएँ गिरा दी
उन्हीं टहनियों पर लेटा हूँ
थकने के बाद एक गर्म बिस्तर पर सोना
टहनियाँ यूँ गले लग रही है
जैसे कोई पुरानी याद बाकी हो
न पांव बचे है न लाठी
थकान तक धुआँ-धुआँ है।
फिर माटी में पाँव उगें तो
कांधा खूंटी पर टांग कर निकलूंगा।