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वन्य / दिनेश्वर प्रसाद
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अभी भी वन्य हूँ, शायद ।
मेरे वात-अनुकूलित भवन के किसी कोने में
अरण्यानी छिपी बैठी ।
मेरी शोधशाला में
ब्रोमीन, गन्धक, अम्ल गन्धों पर
भटकती दूर से हर रात,
चम्पक की महक तिरती ।
विचारों को विचारित ही करूँ,
नहीं अनुभूतियाँ अनुभूत,
सदा ऐसा नहीं होता ।
सुबह के संगमरमर में
सुनहली कोंपलें जब फूटने लगतीं
मुझे नवजन्म-सा लगता ।
क्षितिज की सुर्ख़ भट्ठी में
उगलता लाल- पीला धुआँ
सूरज गल, पिघल जाता
हृदय में कुछ द्रवित होता ।
नहीं, मैं नलकियों में रूप का द्रव जाँच पाता हूँ ।
तड़प को अनुवीक्षक से करूँ विश्लिष्ट,
उस के कीट का उपचार कर दूँ ,
नहीं धीरज है ।
धड़कते वक्ष को
मस्तिष्क कोषों में नहीं मैं बदल पाता हूँ ।
अभी भी आदमी, शायद ।