वसन्त / रामेश्वरलाल खंडेलवाल 'तरुण'
प्रिय वसन्त का आज आगमन,
चलो, चलो रे चलें आम्र-वन!
आज लबलबा रहा हृदय है,
आज पवन का नाम ‘प्रणय’ है,
आज भुजाएँ हैं लहरीली,
आज क्षम्य हर एक आचरण!
आज नयन में स्वप्न रँगीले,
खेत आज सरसों से पीले,
आज गगन के चुम्बन से-
हो रहा धरा का महाजागरण!
आज गा रही कोयल बहरी,
पान अधर पर, मुख में मिसरी।
आज गीत के कर-कमलों से
मानव-मन का है अनावरण!
आज खोल दो मन के बन्धन,
भीने विचरो-ज्योंकि शरद्-धन,
आज सूँघते हुए मंजरी-
गीत सुनाओ, छोड़ व्याकरण!
आज भुजाएँ भर-भर भेंटो,
सरसों के खेतों में बैठो,
सौ-सौ शपथ रूप की खाओ,
रस के भर-भर करेा आचमन!
चिर नवीन सृष्टि में क्या भला-
नित्य वही दुष्यन्त-शकुन्तला!
चुम्बन-धनियों, अब तो कोई-
नूतन प्रस्तुत हो उदाहरण!
हरा करो निज प्यार पुरातन,
जोड़ो नये नेह के बन्धन,
प्रेम-पातियाँ लिखो शहद से,
सम्बोधन में लिखो-‘प्राण-धन!’
प्रिय सवन्त का आज आगमन,
चलो, चलो रे, चलें आम्र-वन!