वसुधैवकुटुम्बकम् / महेन्द्र भटनागर
आदमी आदमी में करना
भेद-विभेद,
किसी को निम्न
किसी को ठहराना श्रेष्ठ,
किसी को कहना अपना
किसी को कहना पराया —
आज के उभरते-सँवरते नये विश्व में
गंभीर अपराध है,
अक्षम्य अपराध है।
करना होगा नष्ट-भ्रष्ट
ऐसे व्यक्ति को / ऐसे समाज को
जो आदमी-आदमी के मध्य
विभाजन में रखता हो विश्वास
अथवा
निर्धनता चाहता हो रखना क़ायम।
सदियों के अनवरत संघर्ष का
सह-चिन्तन का
निष्कर्ष है कि
हमारी-सबकी
जाति एक है — मानव,
हमारा-सबका
वंश एक है — मनु-श्रद्धा,
हमारा-सबका
धर्म एक है — मानवीय,
हमारा-सबका
वर्ग एक है — श्रमिक।
रंग रूप की विभिन्नता
सुन्दर विविधरूपा प्रकृति है,
इस पर विस्मय है हमें
इस पर गर्व है हमें,
सुदूर आदिम युग में
लम्बी सम्पर्क दूरियों ने
हमें भिन्न-भिन्न भाषा-बोल दिए,
भिन्न-भिन्न लिपि-चिह्न दिए।
किन्तु आज
इन दूरियों को
ज्ञान-विज्ञान के आलोक में
हमने बदल दिया है नज़सदीकियों में,
और लिपि-भाषा भेद का अँधेरा
जगमगा दिया है
पारस्परिक मेल-मिलाप के प्रकाश में,
मैत्री-चाह के अदम्य आवेग ने
तोड़ दी हैं दीवारें / रेखाएँ
जो बाँटती हैं हमें
विभिन्न जातियों, वंशों, धर्मों, वर्गों में।