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व्यर्थ गर्व / वियोगी हरि
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अहे गरब कत करत तूँ खरब पाय अधिकार।
रहे न जग दसकंध-से दिग्विजयी जुगचार॥
कनक-पुरी जब लंक-सी झुरी अछत दसकंध।
तुव झोपरियाँ काँस की कौन पूँछिहै अंध॥