शब्दों के पुल / रणजीत
तुम चाहती हो कि मैं सिर्फ़
शब्दों के यान पर चढ़ कर पहुँचूँ तुम्हारे पास
और तुम्हारा स्पर्श अनुभव करूँ
सिर्फ कानों के पर्दों पर ।
पर मैं ध्वनि को ही नहीं दृष्टि को भी अक्षम पाता हूँ
और अनूदित करना चाहता हूँ इन दोनों को
उस बुनियादी स्पर्श संवेदना में
जिसके बिना
मनुष्य और मनुष्य के बीच का यह आदिम जैविक सम्बन्ध
व्यक्त हो ही नहीं पाता;
मैं अपने रक्त की गहराइयों में उफ़नती हुई आवाज़ को
अपनी अँगुलियों के छोरों से
तुम्हारी देह पर लिख देना चाहता हूँ ।
तुम सिर्फ़ शब्दों के पुल बनाना चाहती हो
पर शब्द कितने असमर्थ होते हैं
जब दो देहधारियों की कुर्सियों के बीच
गज भर हवा हो ।
हाँ, शब्द भी एक सेतु हैं
पर तभी
जब तुम मेरे वक्ष पर गाल टिकाए हुए लेटी होती हो
मेरे कन्धे पर सिर रक्खे हुए, मेरी शय्या पर मेरे साथ
तब मैं चीज़ों को उनके सही नामों से पुकार सकता हूँ
पर नहीं - कुछ ही चीज़ों को -
और तुम्हारे करवट बदलते ही वह कच्चा सेतु भी
एक किनारे से टूट कर
दूसरे किनारे से जुड़ा हुआ अधर में लटका रह जाता है
इसलिए शब्द...नहीं ।