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शहतीर आबनूसी / रमेश रंजक

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चले गए घनपंखी दिन !
उतरी शहतीर आबनूसी
गिन-गिन कर सीढ़ियाँ समय की
जाड़े की धूप कुलवधू-सी

नदियों के लम्बे नाखून
छाँट गई रुई और ऊन
खिड़की पर आ कर आकाश
सुझा गया ढेरों मजमून

चप्पे भर हल्दी की थाप
फैल गई भीनी ख़ुशबी-सी।