सदैव ऋणी / शीतल साहू
सर्वप्रथम ऋणी हुं मैं, उस माँ का
सहकर जिसने असह्य दर्द और पीड़ा
लायी मुझे इस संसार मे, प्यार से पुचकारकर
जागकर बिताए जिसने कई राते
गीली बिस्तर में करवट बदलकर-बदलकर
ताकि ले सकू, चैन और सुकून की नींद मैं।
ऋणी हुँ मैं, उस पिता का
जिसने मुझे सम्भाला, इस संसार मे
खुद रहकर भूखे, किया जोड़तोड़ मेहनत
ताकि मेरी हलक में पहुचे अन्न के कुछ दाने
मुझे और मेरे परिवार को दिया, जिसने सम्बल
सिखाया जीवन में जिसने, मेहनत का पाठ मुझे।
ऋणी हुं मैं, उस गुरु का
जिसने ज्ञान के आलोक से
दूर किया अँधेरा, मेरे जीवन से
जो स्वयं दीपक की समान जलकर
दिखाए नए रास्ते, उन काली रातो में
ताकि पहुँच सकूँ मैं लक्ष्य तक, उन अड़चनों को पार कर।
ऋणी हुँ मैं, उस परिवार और उस समाज का
जिसने दिया नाम और पहचान मुझे
सिखाया जिसने, एकता और सद्भाव मुझे
बनाया जिसने, एक ज़िम्मेदार इंसान मुझे
सिखाया जिसने मुझे, दुसरो के दुख में साथ रहना
सिखाया ख़ुशी और आनंद को, एक दूसरे से बांटना।
ऋणी हुं मैं, उस राष्ट्र का
जिसने दिया गौरव मुझे, जन बना
एक विशाल और अखंड राष्ट्र का
एक प्रगतिशील और महान देश का
एक सभ्य और सुसंस्कृत समाज का
वंदन है अभिनंदन है, उस माँ भारती का।
ऋणी हुँ मैं, उस ईश्वर का
दिया जिसने, शरीर इस मानव जन्म का
बनाया जिसने मुझे उदार और कोमल हृदय का
बनाया मुझे चिंतनशील और ग्रहणशील बुद्धि का
जो दिखा रहा है रास्ता, जीवन से उस मुक्ति का।
ऋणी हुँ मैं, सदैव ही ऋणी हुँ,
इस संसार के हर एक जीव का
विश्व के जन-जन का
इस ब्रम्हांड के कण-कण का।