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सपने / दीनानाथ सुमित्र
Kavita Kosh से
टूटे हैं मेरे जाने कितने हजार सपने
देखे हैं मैंने फिर भी तो बार-बार सपने
सपनों की साजिशें भी होतीं रहीं हमेशा
पर साजिशें भी सारी रोती रहीं हमेशा
हर बार पास आए हैं बेकरार सपने
टूटे हैं मेरे जाने कितने हजार सपने
देखे हैं मैंने फिर भी तो बार-बार सपने
आती है रात, आँखों में नींद नहीं आती
रातें न अपने हाथों कंदील ही जलाती
बस तीरगी में रहते ये बेशुमार सपने
टूटे हैं मेरे जाने कितने हजार सपने
देखे हैं मैंने फिर भी तो बार-बार सपने
किससे गिला करूँ मैं, किससे करूँ शिकायत
दिखती नहीं जहाँ में दो बूँद भी मोहब्बत
फिर भी नहीं उतारे अपने खुमार सपने
टूटे हैं मेरे जाने कितने हजार सपने
देखे हैं मैंने फिर भी तो बार-बार सपने