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समाधि / मनोज शांडिल्य

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एहि एकपेड़िआ पर
बढ़ल जा रहल अछि ओ
नितांत एकसरे

आगाँ बला सभ
निकलि गेल छैक
बहुत आगू
दृष्टिक सामर्थ्य सँ बहुत दूर
आ ओकर पाछू –
किओ नहि

अपन प्रजातिक पाँति मे
प्रायः
ओकर स्थान छैक अंतिम

कुकुर-कटाउझ करैत
कतेको पुरना सहयात्री
ध’ लेने छैक
दोसरे कोनो बाट
नः
ओ सभ नहि रहलैक आब
ओकर प्रजातिक

एहि एकपेड़िआ पर
एकसरे चलैत
भ’ रहल छैक ओकरा
समाधिक अनुभूति

एतय
बोधि-वृक्ष कतहु नहि
मुदा तैयो
मुक्त अकासक छाँह मे
भ’ रहल अछि ओ शुद्ध
बनि रहल अछि ओ बुद्ध