समिधा-शेष / कविता वाचक्नवी
समिधा - शेष
आज फिर से सोच बैठी
खुरच कर तुम को परे
मैं आत्मा से
छील डालूँ
लगा, यकायक
कहीं खो गए हो
रास्ते में नहीं आते।
मैंने जीवन के सार खिड़की द्वार
सारे पट
खोल डाले हैं
जी भर हँसती हूँ
गाती हूँ, गुनगुनाती हूँ।
चाहती हूँ - थोड़ा आकाश
जो पूरा नीला हो
खरा नीला
चाहती हूँ थोड़ी धरती
हरी धरती - जो गहरी हरी हो।
हरियाली में लोटना चाहती हूँ
विस्तृत आकाश के तले
पार क्षितिज से - परे
और चाहती हूँ
दूर-दूर तक फैले
निपट अकेलेपन को तृप्त होकर पीना
इस विश्वास से
कि अब कोई नहीं आएगा,
पर चुपके-चुपके
यादें उठकर पास आ जाती हैं
मैं सारे द्वार, सारे पट
बंद कर लूँ
तो पता चलता है
तुम आकाश और धरती के बीच ही थे
अंदर ही थे,
इसी से - चाहती हूँ
आत्मा से छीलकर, खुरच कर फेंकना;
जगत के सारे आडंबर
ईर्ष्या, छल व बनावट के
नकली मुखौटों के
असली मुखड़े,
आत्मा से
आत्मीयता की सारी किरचें
पारदर्शी काँच के
रक्त-पगे टुकडे़।