भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सर्दियों में / कल्पना पंत
Kavita Kosh से
सर्दियों में
चीड़ वृक्ष के नीचे
ठंड से
जल गई है घास
चार घरों से
पहाड़ पर
धुँआ उठता है
उनींदी आँखें खोल देते हैं
पर्वत शिखरों पर
घंडियाल और क्षेत्रपाल
जा चुके हैं गाँव से नौनिहाल
पहाड़ों की छाती पर दीखते हैं घाव
गाँव के दिल पर मसोस सी
कायांतरित चट्टानों-सी देह
सूनी आँखों से पगडंडियों
को बुहारती है
चलती है
सडकों पर यादें
नदी में लहरें
पहाड पर ढाल
पगडंडियों में आहटें
और मन में उलझन
ठंड से ठिठुरते हैं फूल
जंगल सिहर उठते हैं
बर्फ से ठंडी उम्र की ढलान पर
छोटे-छोटे पुलों पर
दरिया के किनारे
चलते रहते हैं
प्रतीक्षारत
एकाकी वृद्ध