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साच / इरशाद अज़ीज़
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					थारै ओळूं रै समंदर मांय 
हिचकोळा खावती 
म्हारी जूण री नाव 
उण बगत सूं आफळ करै 
जद थूं म्हारै हुवण रै साच नैं 
तोड़गी ही 
अर छोड़गी ही 
आपां रै दोयां रै बिचाळै 
अेक सरणाटो 
जको समदर सूं गैरो 
अर अथाग है
अर म्हैं अंवेर राखी है 
उण टूट्योड़ै काच री किरच्यां 
जिणरै हरेक किरचै मांय 
आपां दोयां रो साच दीसै 
थूं नीं ठाह कठै गमगी 
अर म्हैं जोवूं थारी बाट 
नीं ठाह कद आसी थूं 
आपरो साच लियां 
पार लगावण थारा 
म्हारै अर थारै हुवण रो। 
जाणूं हूं औ मारग 
सीधो नीं है 
अबखायां भरयोड़ो औ मारग 
घणो लांबो नीं है 
पण है अबखो-अंवळो 
कित्ता जुगां सूं थारी उडीक 
बावळी हुयगी 
लोग कैवै - थूं नीं आवै 
पण म्हैं कैवूं - थूं आसी।
	
	