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साथी / संगीता गुप्ता
Kavita Kosh से
लम्बी बीमारी के बाद
दफ्तर आयी
आठवीं मंजिल से
कलकत्ता
भव्य, भला दिखाता
फाइलों पर
देर तक झुकी,
थकी दृष्टि उठाती
न जाने कब से
कहां से
वह
खिड़की पर बैठा
आंखें चार होते ही
जोर से चीखता
हतप्रभ, अवाक्
सोचती
अब और क्या होना
शेष रहा
मन
भय से सिहर उठता
टेबल पर रखा
पानी
पी जाती,
हाथ कांप रहे
कमजोरी से
या
अनिष्ट की आशंका से
सहसा फिर अगले ही पल
सहज हो
कह उठती,
अकेले हो ?
आओ
साथ हो लो
ओ गिद्ध