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सावण (अेक) / इरशाद अज़ीज़
Kavita Kosh से
सावण री उडीक
सगळां नै रैवै
पण सवाल औ है कै
किसो सावण
दरखत सूं पानड़ा खिरयां पछै
नूंवा पान लावणियो सावण
कै उडीक री लाय मांय
जळावतो-बाळतो, राख करतो सावण?
तिणका-तिणका सुपना बुणतो पाखी
आपरो आळणो बणावतो
कदैई नीं उडीकै सावण नैं
बो जाणै है
सावण-पतझड़
सै कीं मन रै मांय हुया करै
आंधी, तूफान, बिरखा
अकाळ तो पतझड़ है
अर
आंरो मुकाबलो करतो सावण।