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सुनो! प्रज्ञा / रूचि भल्ला
Kavita Kosh से
जब भगत सिंह को तेईस साल में
फांसी दी जा रही थी
पाश को सैंतीस साल में
गोली मारी जा रही थी
हम-तुम दोनों उस वक्त धरती के गर्भ में पड़े रहे
मिट्टी की पर्त को खुरचते रहे अपने नाखूनों से
ज़ुबान पर गीली मिट्टी का स्वाद फिराते रहे
ये मिट्टी तो शहादत की मिट्टी थी
हम दोनों को हजम कैसे हो गई
इसे खाने के बाद भी
हम दोनों जी रहे हैं चालीस के पार
जी रहे हैं और बूढ़े होते जा रहे हैं
जबकि मृत्यु का उत्सव तो जवानियाँ
कब का मना चुकीं